Period. End Of Sentence: अभी भी कहानी घर-घर की है ‘पीरियड्स: द एंड ऑफ सेंटेंस’

Period. End Of Sentence अक्षय कुमार पैडमैन बनाकर करोड़ों कमा गए लेकिन ढंग के अवॉर्ड भी न ले पाए। लेकिन पीरियड्स: द एंड ऑफ सेंटेंस ने भले ही करोड़ों न कमाए हों लेकिन ऑस्कर ले आई। स्लम डॉग मिलेनियर को भी ऑस्कर मिला था। अक्सर मैंने लोगों को कहते सुना है कि ‘अंग्रेज (पढ़ें विदेशी) भारत की गरीबी पर फिल्म बनाकर ऑस्कर ले लेते हैं और ऑस्कर वाले जानबूझकर भारत की गरीबी का उपहास उड़ाते हुए अवॉर्ड दे देते हैं।’
ये बात कितनी सही है इस पर मुझे तनिक भी यकीन नहीं होता है। पीरियड्स: द एंड ऑफ सेंटेंस का ऑस्कर में जाना और डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट श्रेणी में ऑस्कर जीतना इसलिए भी अश्चर्यचकित नहीं करता क्योंकि इन मुद्दों पर भारत अभी भी बहुत पीछे है। आप सोच रहे होंगे कि भारत से ही क्यों इस तरह के इश्यू उठाए जाते हैं और विश्व पटल पर कथित ‘बदनामी’ की जाती है? साब.. इस डॉक्यूमेंट्री की वजह से आज आप हापुण केकाठीखेड़ा जाइए और देखिए क्या माहौल है वहां का। 
Period. End Of Sentence
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डॉक्यूमेंट्री में एक सीन है जब स्नेहा ई-रिक्शा पर डॉक्यूमेंट्री शूट करने वालों के साथ बातचीत करते हुए जा रही होती हैं और शूट चल रहा होता है तभी आस-पास के लोग पलट-पलट कर देखते हैं तब स्नेहा हंसते हुए कहती हैं- “सब बोलेंगे ये लड़की तो हीरोईन बन गई.. इसकी तो शूटिंग हो रही है। कल देखना कल मेरे साथ क्या होने वाला है मुझे नहीं पता।” इससे पता चलता है कि गांव में एक लड़की अगर थोड़ा सा भी शहरी मिजाज अपनाए तो उसे ‘बिगड़ी’ हुई का दर्जा मिल जाता है नहीं तो लोग एक अलग ही नजरिए से देखना शुरू कर देंगे।
वो नजरिया चाहें कोई भी हो लेकिन रेस्पेक्ट का तो कतई नहीं होता है। पीरियड्स: द एंड ऑफ सेंटेंस की वजह से आज स्नेहा और सुमन का हापुड़ में जगह-जगह पर स्वागत हो रहा है। ऑस्कर जिताकर भारत लौटीं स्नेहा का हर कोई स्वागत इसलिए कर रहा है क्योंकि फिल्म को ऑस्कर मिला है। दुनिया ने उनके काम को पहचाना है। अगर ये डॉक्यूमेंट्री शूट न होती तो पता नहीं स्नेहा का काम कहां तक पहुंच पाता। कौन जानता उसे? अगर दिन-रात खपाकर वो कुछ कर भी लेती तो क्या होता? बहुत ज्यादा होता तो सरकार बुढ़ापे में कोई अवॉर्ड देकर सम्मानित कर देती! 
 
डॉक्यूमेंट्री में एक जगह एक महिला कहती है, “जहां पितृसत्ता होती है वहां हम नारीवीदियों को अपनी बात बताने में बहुत वक्त लग जाता है।” इसमें कोई दोराय नहीं है। यहां अपनी बात बतानें में उन्हें इतना टाइम लग जाता है कि उनके पास खुद टाइम नही रहता। हम में से कितने हैं जो अपने गांवों में इस तरह के मुद्दों पर बोलते हैं? यहां तक कि मैंने बहुतों को देखा है जो अपने खुद के घरों में भी इस पर बात नहीं करते। एक महिला… खासकर अगर वो अविवाहित लड़की है तो उसके लिए महिलाओं से जुड़े मुद्दों को लेकर जागरुकता फैलाना आज भी बहुत मुश्किल है। 
 
एक बार मेरे यहां कोटे (सरकारी राशन की दुकान) पर राशन के साथ कॉन्डोम मिल रहे थे। ये राज्य स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग और खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग का एक कार्यक्रम था जिसका मकसद जनसंख्या वृद्धि.. एचाईवी जैसी तमाम बीमारियों पर रोक लगाा था। कोटेदार ने अपना आदमी गांव में भेजा और वो बोलकर आया कि कोटा आ गया है ले ले आओ। उसके मुंह से कॉन्डोम के बारे में कुछ नहीं निकला। जब दुकान पर पहुंचे तो कोटेदार सभी को राशन के साथ कॉन्डोम पकड़ा रहा था। लोग लेने से डर रहे थे। कुछ उसका उपहास उड़ा रहे थे तो किसी-किसी का ह्यूमर.. सटायर सब एक साथ अंदर से बाहर निकल रहा था। जब कोई महिला राशन लेने आती तो सबकी आवाज फुसफुसाहट में बदल जाती। ये माहौल था। 
आप सोचो कि हमारा समाज कॉन्डोम को लेकर खुलकर बातें नहीं कर सकता तो महिलाओं के पीरियड्स के बारे में तो भूल ही जाओ। जो कहते हैं कि अंग्रेज (फिर पढ़ें विदेशी) हमारे देश में आकर हमारी गरीबी.. हमारी प्रथाओं का ‘मजाक’ उड़ाकर ऑस्कर ले लेते हैं तो ये डॉक्यूमेंट्री उन लोगों को जरूर देखनी चाहिए। कोई एक्टर नहीं है। बस सिंपल सी बाइट्स हैं लोगों की व इस टैबू की शिकार महिलाओं की। बॉलीवुड को सोचना चाहिए। गावों में निकलना चाहिए। हर गली में एक स्नेहा रहती है। हर गली में सुमन जैसी बूढ़ी औरतें हैं जो खुद तो कुछ नहीं कर सकीं लेकिन आने वाली पीढ़ी के लिए काफी कुछ करना चाहती हैं। जरूरत है तो बस एक सहारे की.. सहारा भी नहीं बस जरूरत है उनके काम को पहचाने जाने की… 

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